सच का साथ वाले शिक्षक यदि सच बोलें तो हो जाती है कार्यवाही


 


 


तकरीबन बीस सालों में उसने कई नौकरियां कीं। शिक्षण, -पत्रकारिता, लेखन आदि इत्यादि। सरकारी शिक्षक बन भी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को रोचक बनाने में जान डाल दी। उसके साथ के उम्रदराज शिक्षक मित्रों ने खूब कहा भी क्या इन बच्चों को कलक्टर बना दोगे? ये तो रोड़ पर रेडी लगाएंगे। अभी नए नए हो फिर देखने कुछ साल बाद हम जैसे ही हो जाओगे। शायद यही कबूलनामा था उन शिक्षकों का जिसने उसे सरकारी शिक्षक बने रहने से बाहर किया। उसने तय किया कि अब और नहीं ऐसे शिक्षकीय सोच के साथ जी सकता। शायद उसकी जगह कहीं और है। जहां कुछ करने और जिंदा रहने की ताजी हवा आती होगी। वह शायद उसका सपना था या फिर एक कल्पना। जब साल दर साल नौकरियां बदलता नई ताजी हवा की उम्मीद करता किन्तु आखिरकार कहीं तो रूकना था। कहीं तो बटोही को ठहरना था। सो रूका भी और अपनी पूरी ताकत और ऊर्जा भी लगाया। एक नहीं सौ नहीं बल्कि हजारों बच्चों के बीच पहुंच बनाने लगा। अकेला स्कूल में शायद पूरी जिंदगी में इतनी संख्या में बच्चों तक नहीं पहुंच पाता किन्तु जब शिक्षक-प्रशिक्षक बना तो उन हजारों शिक्षकों के जरिए हजारों बच्चों से संवाद करने लगा। ___शिक्षक था सो लिखने-पढ़ने, कहने-सुनने की ताकत से अच्छी तरह से वाकिफ था। जानता था कि शब्द की सत्ता क्या होती है। शब्द की साधना क्या होती है। एक शब्द भी गलत इस्तमाल हो गए तो पूरी कायनात उसे नेस्तनाबूत करने में जुट जाती है। शिक्षकीय धर्म और कर्म को पूरी तरह जीने वाला वह शिक्षक एक दिन अपने ही शब्दों के हत्थे चढ़ गया। उसके शब्द उसके खिलाफ खडे हो गए। उसके आस-पास सारी स्थितियां विपरीत हो गई। शब्द ही थे जिसने उसे बाहर का रास्ता दिखाया। कोई और नहीं था समाज का एक ऐसा धडा था जो ताकत को अपनी मट्री में दबा कर बैठा था। ऐसी ताकतों की जद में आ गया जिसे यह स्वीकारना गवारा नहीं था कि किसी ने सच के सामने ला खडा किया। उसकी गलती इतनी भर थी कि उसने वही सच लिखा जिसे विश्व और देश के तमाम रिपोर्ट पिछले कम से कम पंद्रह बीस सालों से लिख लिख कर छाप रहे हैं और हर साल वे रिपोर्ट किसी आलमारी में दब जाती हैं। लेकिन निजाम को स्वीकार नहीं हआ कि यह कैसे लिख सकता हैइसकी इतनी हिमाकत कि हमारी रोटी खाता है और हमें ही आईना दिखाए। एक अदना-सा प्यादा और ख्वाब तो यह एक कहानी की शुरुआत हो सकती है। शायद आपको पढ़ते हुए आनंद भी आ रहा हो। आपको लग रहा हो कि यह भी कोई कबूलनामा हुआ? वो भी एक शिक्षक का? क्या शिक्षक भी कबूल सकता है कि वो पढ़ा नहीं पाता। वह पढ़ाने के लिए ही प्रशिक्षित है लेकिन हालात उसे उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी से ही महरूम रखने में लगे हैं। जो भी हो शिक्षक एक ऐसा जीव होता है जो बेहद कोमल और नरम होता है जैसे पानी कह लें। जैसे सुबह की ओस की कल्पना कर लें। उस ओस की बूंद के सौंदर्य को बचा पाना जरा मुश्किल होता है। हालांकि शिक्षक अपनी दुनिया का वह इकलौता जीव होता है जिसे अपने बच्चों, पढ़ने-पढ़ाने में आनंद आता है। वह स्कूल के बाहर कभी झांकता भी है तो उसे पूरी दुनिया विद्यालय-सा ही नज़र आती है। जहां अनुशासन है। सीखने-सिखाने की पूरी छूट है। जहां बच्चे उसकी बात को मानते हैं। आदर करते हैं आदि आदि। लेकिन वह भूल जाता है कि स्कूल के बाहर एक ऐसी दुनिया है जहां झूठ, दिखावा, एक ओढ़ा हुआ सच, सच का द्वाभा की छटाएं होती हैं। सच होता नहीं है किन्त सच का आभास भर होता है। इस आभासीय दुनिया में कई बार वह शिक्षक ठोकर खाता है। कई बार ठोकर मारी जाती है ताकि उसे एहसास हो कि वह एक शिक्षक है और उससे ज्यादा उसकी ताकत नहीं है। उस शिक्षक को दुबारा गढ़ने में किसी शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान की कोई भूमिका नहीं होती। जो उसे सीखना था वह तो उसने सेवापूर्व और सेवाकालीन संस्थानों में सीखा किन्तु जो पाठ उसे समाज सिखाता है उसमें कई सारे मास्टर होते हैं। क्या अर्थशास्त्री और क्या राजनीति के गुरु, सब के सब उसे समय-समय पर इसका एहसास पुख्ता करते रहते हैं कि तू चीज क्या है? जब चाहें तुम्हें तुम्हारी औकात और स्थान दिखा सकते हैं। जहां चाहें स्थानांतरण कर सकते हैं और तो और इस्तीफा देने पर मजबूर भी कर सकते हैं। और इस तरह से एक कोमल मना शिक्षक एक भय के माहौल में जीना सीखने लगता है। दीगर बात है कि वही शिक्षक जब कक्षा में उन्हीं के बच्चों को पढ़ा रहा होता है कि सत्य की विजय होती है। सच हमेशा जीतता है। झूठ नहीं बोलना चाहिए। अगर तुम सही हो तो किसी से भी डरना नहीं चाहिए। आदि आदि वह अपनी कक्षाओं में पढ़ाता है किन्तु यही समाज है जो उसे उसके पाठ को धत्ता बताते हुए उसे इस पाठ को पुनर्निर्माण करने को मजबूर करता है कि यदि तुम सत्ता और ताकत के खिलाफ बोले या लिखे तो उसका कठोर अंजाम भुगतना होगा। ऐसे द्वंद्व में जीता शिक्षक फिर भी उम्मीद और आशा की डोर से बंधा अपनी शैक्षणिक डगर पर ढिलमिलाता रहता है। शिक्षा-शिक्षक और राजनीति का एक गहरा रिश्ता रहा है। तीनों के समीकरण को समझना जरा मुश्किल है किन्तु कठिन नहीं है राजनीति और राजनीतिक शक्तियां हमेशा ही पूर्व के दोनों ही घटकों को बहुत करीब से प्रभावित और दिशा देती रही हैं। शिक्षा की क्या नीति हो? शिक्षक क्या पढाए? कितना पढाए? कब पढाए आदि अकादमिक कार्यों में भी राजनीति के हस्तक्षेप के पदचाप को सना जा सकता है। आजादी के पर्व लेकर आजादी के बाद भी उस राजनीतिक हुंकार को सुन सकते हैं। हमारा शिक्षक किस पाठ को पढाए और कितना पढ़ाए इस विमर्श को राजनीति तय करने लगे तो यह शिक्षक और शिक्षा के लिए शभ संकेत नहीं माने जा सकते । दरअसल राजनीतिक शक्तियां इतनी ताकतवर होती हैं कि शिक्षा और शिक्षक की सत्ता को कमजोर कर अपना विजय पर्व मनाती हैंइसे स्वीकारने में किसी को भी गरेज नहीं हो सकता कि राजनीतिक हस्तक्षेप एक ऐसा प्रहार है जिससे समय-समय पर अकादमिक जीव आहत होता हैउस दबाव को सह नहीं पाता और वह पेशेगत समझ और कौशल होने के बावजद बाहर हो जाता है या कर कर दिया जाता है। दूर न भी जाएं तो चाहें वह नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क का इतिहास हो या फिर शिक्षा नीतियां या फिर अन्य शैक्षणिक समितियां कई बार बेहद दक्ष और शिक्षाशास्त्री और शिक्षाविदों ने अपने आप को अलग कर लिया।